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- सियाराम पांडेय ‘शांत’
अखंड ब्रह्मांड नायक हैं राम। मंगल भवन हैं, सभी प्रकार के अमंगलों को दूर करने वाले हैं। ‘मंगल भवन अमंगल हारी, उमा सहित जेहि जपत पुरारी।’ जिसके प्रभाव से धरती और आकाश का वजूद है। अग्नि जलता है। जल और वायु बहते हैं। चंद्रमा की किरणें शीतल होकर संसार को सुख देती हैं। तारागण गगनमंडल में उद्दीप्त होते हैं। टिमटिमाते हैं। ‘यस्याज्ञयावायवो वान्ति लोके ज्वलत्यग्नि सविता यातु तप्यन। शीतांशु खे तारका संग्रहश्च प्रवर्तन्ते निशिदिनं प्रपद्ये। यस्य श्वासात सर्व धात्री धरित्री देवो वर्षति अंबुकाल: प्रमाता। मेरु मध्ये भुवनानां च ईश। तमीशानं विश्व रूपं नमामि।’ जिस भगवान राम के श्वांस लेने से धरती संसार को अपने ऊपर धारण करने की क्षमता से युक्त होती है, वे राम जो संपूर्ण विश्व को चलाने वाले हैं, जिसकी श्वांस की वजह से बादल बरसते हैं, वे भगवान राम अगर धरती पर मनुष्य लीला करते हैं तो उसे देखने का सुख भला कौन नहीं पाना चाहेगा?
गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है कि ‘उमा दारु जोषित की नाईं। सबहिं नचावत राम गुंसाई।’ वे कठपुतली की तरह पूरी दुनिया को अपने इशारे पर नचा रहे हैं। भगवान राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उनका स्वरूप ही नहीं, चरित्र भी मनभावन है। वे समदर्शी हैं। कौन कितना बड़ा आदमी उनके समक्ष आया है, यह उनके लिए ज्यादा मायने नहीं रखता। किस भाव से आया है, यह उनके लिए ज्यादा अहम है। ‘भाव-कुभाव अनख आलसहूं नाम जनत मंगल दिसि दसहूं।’ जिस तरह घी का लड्डू टेढ़ा होने पर भी भिन्न स्वाद और प्रभाव नहीं रखता, उसी तरह राम का नाम जिस किस भी तरह से लिया जाए, मंगलकारी ही होता है।
कबीर ने राम की तुलना मां से की है। उनका मानना है कि मां बच्चे द्वारा अपने बाल खींचे जाने पर भी उसका अपकार नहीं करती। बालक दुखी होता है तो मां भी दुखी हो जाती है। ‘करि गेह केस करई जो घाता। तउ न हेत उतारै माता। कहै कबीर एक बुधी विचारी, बालक दुखी, दुखी महतारी।’ उसी तरह प्रभु राम भी अपकार नहीं करते बल्कि अपकार करने वाले को भी अपने धाम भेज देते हैं। तभी तो रावण जैसा अहंकारी विद्वान जीवन के अंतिम क्षणों में भगवान राम से अत्यंत सहजता से कह देता है कि राम अगर तुम अपने को जीता हुआ समझते हो तो तुम गलत हो। जीत तो मेरी ही हुई है। ‘अपने जीते जी आने न दिया लंका में राम तुम्हारे को। तेरे जीते जी जाता हूं, देखो मैं धाम तुम्हारे को।’ प्रभु श्रीराम मुस्कुराकर रह जाते हैं। रावण को क्या पता कि भगवान अपने भक्त की हर इच्छा का सम्मान करते हैं। भक्तों से हारने में ही उन्हें मजा आता है। जो इस साधारण सी बात को समझ जाता है कि भगवान किसी से भी द्वेष भाव नहीं रखते। उसका जीवन धन्य हो जाता है। प्रभु श्रीराम का तो हर संसारी जीव से एक ही नाता है। वह नाता है प्रेम का, वह नाता है भक्ति का। दूसरा नाता तो वे रखते ही नहीं। राम की राह पर चलने वाले भी प्रेम और भक्ति की राह पर ही चलना पसंद करते हैं।
माता सबरी उनसे कहती हैं कि मैं छोटी जाति में उत्पन्न हुई हूं। अधम से भी अधम हूं। मतिमंद तो हूं ही, फिर भी हे रघुनायक आपने मुझे कृपा कर दर्शन दिया। मैं तो धन्य हो गई। ‘केहि विधि अस्तुति करौं तुम्हारी, अधम जाति मैं जड़मति मारी। अधम ते अधम अधम अति नारी, तिन्ह मंह मैं मतिमंद अघारी।’ माता शबरी के यह वचन सुनकर भगवान राम भी भावविभोर हो गए। समझ में नहीं आ रहा था कि वर्षों की इस ग्लानि को, जातिबोध के इस दंश को दूर कैसे करूं? सामान्य तरीके से तो बात समझ में आती ही नहीं। उन्होंने माता शबरी से जो कुछ भी कहा, वह भारतीय तत्व दर्शन का सार है। धरती पर छुआछूत और जाति-पंथ की राजनीति करने वालों के लिए सबक है।
प्रभु श्रीराम ने कहा कि ‘कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउं एक भगत करि नाता।’ सुनो भामिनि, मैं तो केवल भक्ति के नाते को ही मानता हूं। संसार के दूसरे कोई भी रिश्ते-नाते मेरे लिए मायने नहीं रखते। उन्होंने माता शबरी को नवधा भक्ति का ज्ञान दिया। उन्होंने कहा कि ‘जाति पाति कुल धर्म बड़ाई, धन बल परिजन गुन चतुराई। भगति हीन नर सोहई कैसा। बिन जल वारिद देखई जैसा।’ उन्होंने कहा कि भक्ति से हीन मनुष्य बिना जल के बादलों जैसा ही दिखता है। नवधा भक्ति का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा है कि इनमें से एक भी जिसके पास होती है। वह व्यक्ति मुझे बहुत प्रिय है। ‘सोई अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरे।’ जब प्रभु श्रीराम माता शबरी के जूठे बेर खा सकते हैं तो उनके भक्त क्यों छुआछूत के प्रपंच में पड़ें।
भगवान श्रीराम संसार के मार्गदर्शक हैं। सामाजिक समरसता का इससे बड़ा उदाहरण दूसरा हो ही नहीं सकता। शबरी और राम का यह प्रसंग बताता है कि भगवान की नजर में न कोई छोटा है और न ही बड़ा। व्यक्ति अपने कर्म, स्वभाव और आचरण से त्याज्य और ग्राह्य होता है। भगवान राम की भक्ति के इस रहस्य को जो भी समझ लेता है, संत बन जाता है। बड़ा बनने के लिए छोटा बनना बहुत जरूरी है। जो छोटा नहीं बन सकता, वह बड़ा कभी नहीं बन सकता। बीज तो छोटा ही होता है लेकिन जब वह भूमि में दबता और अंकुरित होता है तो पौधा बनता है। बीज से पौधा और पौधे से पेड़ बनने की प्रक्रिया में वर्षों लग जाते हैं। राम बनना भी आसान नहीं है। राम केवल दो अक्षर का नाम है लेकिन यह अध्यात्म और ज्ञान-विज्ञान का बीज तत्व है। इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। यह सामान्य नाम नहीं है। जो रमता है, वही राम है। ‘रमन्तेति राम:।’ राम घट-घटव्यापी हैं। राम को समझना है तो लघुता को महत्व देना होगा। वह लघुता जो प्रभुता की ओर ले जाती है। ‘लघुता से प्रभुता मिलै प्रभुता से प्रभु दूर।’
भारत में जिस रामराज्य की कामना महात्मा गांधी करते थे। वह रामराज्य जिसमें कोई दीन-दुखी नहीं था। जहां ऊंच और नीच का भेद नहीं था। सब एक दूसरे को स्नेह करते थे। उस राम को सांप्रदायिकता की नजर से देखना कितना उचित है?इस पर विचार तो करना ही होगा। बिना विचार के तो हम राम को समझ ही नहीं पाएंगे।