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लोक ही नहीं परलोक सुधारने का जतन है मां के नाम एक पेड़

  • राघवेंद्र शर्मा
    मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार ने देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से प्रेरणा पाकर ‘मां के नाम एक पेड़’ योजना को हाथ में लेकर केवल पर्यावरण को सुधारने का प्रयास ही नहीं किया है, बल्कि इसके माध्यम से प्रकृति को अपने अनुकूल बनाने की कोशिश शुरू कर दी है। यदि इस योजना को साकार करने हेतु सरकार के साथ जनता जनार्दन के कदम मिल जाएं तो आने वाले समय में एक नए भविष्य की संभावना प्रबल होती दिखाई देती है। जन श्रुतियों और ग्रंथों में दर्ज परंपराओं पर ध्यान दें तो हमें पता चलेगा कि भारतीय संस्कृति और संस्कार, दोनों इस प्रकृति के प्रादुर्भाव से ही पर्यावरण के हितकारी रहे हैं। उदाहरण के लिए- हमारे देश में आस्था का इतना गहन महत्व है कि यहां अनेक नदियों को मां के समान पूजा जाता है।
    पत्थरों से मूर्तियां तराशकर हम उनके भीतर अपने देवताओं के दर्शन करते हैं। इसे भी महत्वपूर्ण स्थान हमारे जीवन में पेड़ पौधों और वृक्षों का रहा है। वर्ष भर जितने भी हिंदू त्यौहार मनाए जाते हैं उनमें ढेर सारे उत्सव ऐसे हैं, जिनमें केवल और केवल वृक्षों अथवा पेड़ पौधों की ही पूजा की जाती है। विस्तार से स्मरण करें तो हम पाएंगे हमारी माताएं बहने विभिन्न त्योहारों के माध्यम से वट वृक्ष, पीपल, आंवला, आम, केला, तुलसी सहित अनेक वृक्षों अथवा पेड़ पौधों की स्तुति करती रहती हैं। ये परंपराएं केवल इसलिए नहीं बनीं कि वृक्षों अथवा पेड़ पौधों की पूजा करने से हमें इच्छित फल की प्राप्ति हो जाती है अथवा देवी देवताओं के दर्शन हो जाते हैं। इनका गूढ़ अर्थ यह भी है कि हम जिन्हें पूजते हैं, सदैव ही उनकी सलामती की कामना करते रहते हैं।
    लिखने का आशय यह कि जब हम वृक्षों अथवा पेड़ पौधों की पूजा करते हैं तो फिर यह चिंता भी स्वाभाविक हो जाती है कि धरती को हरा भरा बनाए रखने वाले ये पेड़ पौधे सदैव सही सलामत बने रहें तथा इनकी उत्पत्ति निरंतर वृद्धि को प्राप्त होती रहे। जाहिर है इस कामना को फलीभूत करने के लिए हमारे पूर्वज बड़े स्तर पर वृक्षारोपण भी करते रहे हैं। यदि हम अपने पुराने इतिहास को टटोलें तो पाएंगे कि भारत में ऐसे नगरों और ग्रामों की भरमार थी, जहां सड़कों के किनारे, घरों के आंगन में, बस्तियों के केंद्र में फलदार वृक्ष सहज भाव से ही आरोपित किए जाते थे।
    मौसम कोई भी हो, गर्मी सर्दी अथवा बारिश, यह सब जीव मात्र के प्रति अनुकूल तो बने ही रहते थे। ना ज्यादा सर्दी होती थी और ना अधिक गर्मी पड़ा करती थी। बारिश के मौसम में भी अतिवृष्टि और सूखे से राहत बनी रहती थी। कारण स्पष्ट है वृक्षों की अधिकता मौसम में अनुकूलता बनाए रखती थी। यदि विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो फिर यह मानना पड़ेगा कि हमारे पूर्वज और संत महात्मा शेष सभ्य समाज की अपेक्षा अधिक चैतन्य एवं जागरूक थे। वे जानते थे कि जीव मात्र का अस्तित्व बचाए रखने के लिए वृक्षों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। अर्थात वृक्षों को जीवन दाता माना गया तभी उसके पूजन और स्तुति की स्थितियां निर्मित हुईं और आम जनमानस को प्रकृति के साथ जोड़ दिया गया।
    य हिंदू धर्म में कहा तो यहां तक गया है कि किसी पुरुष अथवा नारी द्वारा दस बच्चों को जन्म देने और उनके पालन पोषण करके उन्हें सभी प्रकार से योग्य बनाने के बाद जो सुफल प्राप्त होते हैं वह सब केवल एक वृक्ष को लगाने से ही प्राप्त हो जाते हैं। लयदि मानवीय गलतियों से नुकसान दायक गैसों का उत्सर्जन होने लगता है तो उन्हें भी पेड़ों की अधिकता के चलते निस्तेज किया जा सकता है।
    यदि पृथ्वी पर पेड़ पौधे पर्याप्त हैं तो वे सब मिलकर जलवायु परिवर्तनों को संतुलित बनाए रखते हैं। अर्थात समय पर बारिश होती है और उतनी ही होती है जिससे ना तो सूखा रह जाए और ना ही बाढ़ अथवा प्रलय के हालात बनें। दुख की बात यह है कि आजादी के बाद से लेकर अभी तक जितनी भी सरकारें अधिकतम समय तक शासन करती रहीं, उन्होंने कभी इस अत्यंत महत्वपूर्ण पहलू पर गंभीरता के साथ गौर किया ही नहीं। बस वृक्षारोपण के नाम पर करोड़ों अरबो रुपए स्वाहा किए जाते रहे। इस पुण्य कार्य की आड़ में भारी पैमाने पर भ्रष्टाचार होता रहा। कागजों में वृक्षारोपण होते रहे, जो थोड़े बहुत वृक्षारोपण हुए भी तो देखभाल के अभाव में उन्होंने दम तोड़ दिया। नतीजा यह निकला कि विकास के नाम पर अंधाधुंध पेड़ काटे जाते रहे। जबकि उसके विपरीत वृक्षों को पर्याप्त मात्रा में नहीं रोपा गया। नतीजा हम सबके सामने हैं। गर्मियां और अधिक जानलेवा हो रही हैं। सर्दियों के मौसम में भी लोग पहले की अपेक्षा अधिक दम तोड़ने लगे हैं। बारिशों का हाल यह है कि कहीं पानी का अभाव रह जाता है तो कुछ इलाकों में इतनी आतिवृष्टि होती है कि बाढ़ और प्रलय के हालात बन जाते हैं।

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