55
- रमेश शर्मा
भारतीय स्वाभिमान और स्वातंत्र्य वोध जागरण के लिए यूं तो करोड़ों महापुरुषों के जीवन का बलिदान हुआ है किन्तु उनमें कुछ ऐसे हैं जिनके जीवन की प्रत्येक श्वांस राष्ट्र के लिये समर्पित रही। स्वातंत्र्यवीर सावरकर जी ऐसे ही महान विभूति थे जिनके जीवन का प्रतिक्षण राष्ट्र और स्वत्व बोध कराने के लिये समर्पित रहा। वे संसार के एक मात्र ऐसे कैदी थे जिन्हें एक ही जीवन में दो आजीवन कारावास का दंड मिला। यह उनके संघर्ष और अंग्रेज सरकार द्वारा दी गई यातनाओं का ही कारण था कि उन्हें समाज ने ‘स्वातंत्र्यवीर’ जैसे गौरवमयी उपाख्य से सम्मानित किया।
उन्होंने अंडमान की काला-पानी जेल में कठोरतम यातनाएं सहीं। उनकी कोठरी 7×11 आकार की थी। मौसम गर्मी का हो या सर्दी का उन्हें जमीन पर ही सोना होता था। इसी कोठरी कोने में शौच और पेशाब करना होती। और इसी में भोजन करना होता था। हाथ में हथकड़ी और पैरों में बेड़ियां लगी होती थीं। उसी स्थिति में जो और जैसा मिले, वही भोजन करना होता था। उन्हें प्रतिदिन बैल की भांति कोल्हू में जोता जाता था। यदि तेल निकालने की मात्रा कम हो तो पिटाई होती थी। भोजन नहीं दिया जाता था। उसी जेल में उनके भाई भी थे पर दोनों भाई एक दूसरे से मिलना तो दूर देख भी नहीं सकते थे। पूरी जेल में सावरकर जी एकमात्र ऐसे कैदी थे, जिनके गले में अंग्रेजों ने एक पट्टी लटका रखी थी। इस पर ‘डी’ लिखा था। ‘डी’ अर्थात डेंजरस। यातनाएं देने का यह चक्र चला लगभग ग्यारह वर्ष चला।
इतनी यातनाएं देने का कारण यह था कि पूना से लेकर लंदन तक उनके जीवन का कोई क्षण ऐसा नहीं बीता जब उन्होंने अंग्रेजों से भारत की मुक्ति का कोई उपक्रम न किया हो। स्वातंत्र्यवीर सावरकर पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने 1901 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया की मृत्यु पर नासिक में आयोजित शोक सभा का विरोध किया था और कहा कि वो हमारे शत्रु देश की रानी थी, हम शोक क्यूं करें? वीर सावरकर पहले देशभक्त थे जिन्होंने एडवर्ड सप्तम के राज्याभिषेक समारोह का उत्सव मनाने वालों को त्र्यम्बकेश्वर में बड़े-बड़े पोस्टर लगाकर कहा था कि दासता का उत्सव मत मनाओ..! उन्होंने 7 अक्टूबर 1905 को पूना में स्वदेशी अपनाओ आंदोलन छेड़ा और विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी।
यह सावरकर जी द्वारा स्वाभिमान और स्वत्व जागरण के लिए किये जाने वाले कार्यों का ही प्रभाव था कि तिलक जी ने अपने समाचार पत्र ‘केसरी’ में सावरकर जी को छत्रपति शिवाजी महाराज के समान बताकर प्रशंसा की थी। सावरकर जी द्वारा विदेशी वस्त्रों की होली जलाने के कारण उन्हें फर्म्युसन कॉलेज पुणे से निकाल दिया गया था। इसके विरोध में छात्रों ने हड़ताल की। इस समूची घटना पर तिलक जी ने ‘केसरी’ पत्र में सावरकर जी के पक्ष में सम्पादकीय लिखा। वे पहले ऐसे बैरिस्टर थे जिन्होंने ब्रिटेन में परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ब्रिटेन के राजा के प्रति वफादार होने की शपथ लेने से इंकार कर दिया था। इस कारण उन्हें बैरिस्टर होने की उपाधि का पत्र कभी नहीं मिला। यह घटना 1909 की है। वीर सावरकर पहले ऐसे लेखक थे जिनकी पुस्तक ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ पर प्रकाशन के पहले ही प्रतिबंध लगा। वीर सावरकर पहले क्रान्तिकारी थे जो समुद्री जहाज में बंदी बनाकर ब्रिटेन से भारत लाते समय आठ जुलाई 1910 को समुद्र में कूद पड़े थे और तैरकर फ्रांस पहुंच गए थे। लेकिन तट पर बंदी बना लिये गये। सावरकर जी पहले ऐसे क्रान्तिकारी थे जिनका मुकद्दमा अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय हेग में चला। वे भारत के पहले क्रांतिकारी थे जिन्हें अंग्रेजी काल में दो आजन्म कारावास की सजा सुनाई गई। दो जन्म कारावास की सजा सुनते ही हंसकर बोले, ‘चलो, ईसाई सत्ता ने हिन्दू धर्म के पुनर्जन्म सिद्धांत को मान लिया’। अपने काला पानी कारावास के दौरान उन्होंने कंकर और कोयले से कवितायें लिखीं और 6000 पंक्तियां याद रखीं।
वे अंग्रेजी सत्ता काल में लगभग 30 वर्षों तक विभिन्न जेलों में रहे और स्वतंत्रता के बाद भी 1948 में गांधी जी की हत्या के आक्षेप में पुनः गिरफ्तार हुये और न्यायालय द्वारा आरोप झूठे पाए जाने के बाद उन्हें ससम्मान रिहा किया गया।
ऐसे महान स्वातंत्र्यवीर विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र प्रांत के नासिक जिला अंतर्गत ग्राम भागुर में हुआ था। पिता दामोदर पंत सावरकर भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के लिये समर्पित ओजस्वी वक्ता थे और माता राधाबाई आध्यात्मिक विचारों और जीवन शैली की प्रबल पक्षधर थीं। इनके दो भाई गणेश दामोदर सावरकर उनसे बड़े थे और नारायण दामोदर सावरकर छोटे। एक बहन नैनाबाई थीं।
जब विनायक केवल नौ वर्ष के थे तब महामारी में माता का देहान्त हो गया। और जब सोलह वर्ष के हुये तो पिता भी स्वर्ग सिधार गये। तब बड़े भाई गणेश सावरकर ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य संभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में किशोरवय विनायक की संकल्प शक्ति और दृढ़ हुई । 1901 में नासिक के शिवाजी हाईस्कूल से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। बचपन से बहुत कुशाग्र बुद्धि और अति संवेदनशील स्वभाव के थे। पढ़ाई-लिखाई के साथ कविता कहानी और सामायिक विषयों पर आलेख लिखा करते थे। अपने छात्र जीवन में ही उन्होंने स्थानीय युवकों को साथ लेकर मित्र मेलों का आयोजन किया। इसी वर्ष 1901 में विवाह हुआ। पत्नि यमुना बाई के पिता रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर आर्थिक रूप से समृद्ध थे । इसलिये उन्होंने अपने दामाद की उच्च शिक्षा का भार उठाया। अपने इन धर्म पिता की सहायता से उन्होंने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी.ए. किया। समय के साथ दो संतान उत्पन्न हुई पुत्र का नाम विश्वास सावरकर और पुत्री का नाम प्रभात सावरकर रखा।