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संयुक्त राष्ट्र का विवाद नहीं रहा कश्मीर मुद्दा

  • प्रमोद भार्गव
    पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने मंजूर किया कि उनका देश कश्मीर को संयुक्त राष्ट्र के अजेंडे का मुख्य मुद्दा बनाने में नाकाम रहा है, इसके उलट भारत की कूटनीति पाकिस्तान के प्रयासों को विफल करने में सक्षम रही है। बावजूद जरदारी ने कश्मीर के हालात की तुलना फिलिस्तीन से कर दी। संयुक्त राष्ट्र के एक संवाददाता सम्मेलन में एक प्रष्न के उत्तर में उन्होंने यह टिप्पणी की। याद रहे पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र के हर मंच पर जम्मू-कश्मीर का मुद्दा उठाता है। भले ही किसी भी अन्य अजेंडे पर चर्चा की जा रही है। बावजूद पाकिस्तान को इस मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र का व्यापक समर्थन कभी नहीं मिला। अधिकतर देश कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय विवाद मानते हैं। जरदारी ने स्वीकारा कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से संयुक्त राष्ट्र का यह विवाद रह ही नहीं गया है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय अब इसे मान्यता प्राप्त विवादित क्षेत्र मानता ही नहीं है। हालांकि पांच अगस्त 2019 को जम्मू-कष्मीर से संबंधित अनुच्छेद-370 समाप्त करने के बाद से भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव बढ़ा है, बावजूद भारत ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से साफ कह दिया है कि अनुच्छेद-370 रद्द करना उसका आतंरिक मामला है। इसलिए इस मामले में कोई हस्तक्षेप बर्दास्त नहीं किया जाएगा।
    इसमें कोई दो राय नहीं कि विभाजन की जिस अव्यावहारिक व अप्राकृतिक मांग के आगे नेहरू समेत हमारे तत्कालीन नेता जिस तरह से नतमस्तक होते चले गए, उससे न केवल जम्मू-कश्मीर, बल्कि पाक अधिकृत कश्मीर, भारत, पाकिस्तान और बंग्लादेश को भी विभाजन का दर्द झेलना पड़ा है। जबकि विभाजन के समय ही यह साफ लगने लगा था कि यह अखंड भारत की विरासत को खंडित करने की अंग्रेजी हुकूमत की कुटिल चाल है। बावजूद कांग्रेस नेता यह नहीं समझ पाए कि जो शेख अब्दुल्ला ‘मुस्लिम कांफ्रेंस का गठन कर कश्मीर की सामंती सत्ता से मुठभेड़ कर रहा है, उसे शह मिलती रही तो वह भस्मासुर भी बन सकता है ? 1931-32 में शेख की मुलाकात नेहरू तथा खान अब्दुल्ल गफ्फार खान से हुई। इन्हें सीमांत गांधी भी कहा जाता है। इस गुफ्तगू से शेख को इतनी ताकत और दृष्टि मिली कि शेख ने अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए ‘मुस्लिम कांफ्रेंस’ से मुस्लिम षब्द हटा दिया और ‘नेशनल’ जोड़ दिया। जिससे राष्ट्रीयता का भ्रम हो। इसी समय जिन्ना ने पृथकतावादी अभियान चला दिया। फिरंगी शासक तो चाहते भी यही थे कि भारत को आजादी धर्म के आधार पर बंटवारे की परिणति में हो। आमतौर से ऐसा माना जाता है कि कश्मीर समस्या 1947 के बाद पनपी व विकसित हुई। जबकि वास्तव में इसकी शुरुआत जम्मू-कश्मीर के महाराजा गुलाब सिंह के दरबार में ‘आंग्रेज रेजिमेंट’ की नियुक्ति के साथ ही हो गई थी। किंतु अंग्रेज नाकाम रहे। इसी समय दुर्भाग्य से कश्मीर के गिलगिट क्षेत्र के राजा रणवीर सिंह का देहांत हो गया। अंग्रेजों ने शोक में डूबे राज-परिवार की इस कमजोरी को एक अवसर माना और सक्रियता बढ़ा दी।
    दरअसल अंग्रेजों ने 1885 में ही यह योजना बना ली थी कि किसी भी तरह जम्मू-कश्मीर के दुर्गम व सुरक्षित क्षेत्र गिलगिट व बाल्टिस्तान पर कब्जा करना है। जिससे अमेरिका की सैन्य गतिविधियों के लिए एक सुरक्षित स्थान मिल सके। अमेरिका इसे सोवियत संघ पर शिकंजा कसने की दृष्टि से उपयुक्त क्षेत्र मान रहा था। लिहाजा अंग्रेजों ने षड्यंत्र पूर्वक इस क्षेत्र को ‘गिलगिट एजेंसी’ नाम देकर 1889 में अपने कब्जे में ले लिया। इसके अधीनता में आते ही सिंधु नदी के पूर्व और रावी नदी के पश्चिमी तट तक समूचे पर्वतीय भू-भाग पर अंग्रेजों का नियंत्रण हो गया। इस समय गिलगिट में प्रताप सिंह राजा रणवीर सिंह के उत्तराधिकारी के रूप में शासक थे। प्रतापसिंह अंग्रेजों की साजिश का शिकार हो गए। गुलाब सिंह की मृत्यु के बाद हरिसिंह जब राजा बने तो 1925 में उनकी आंखें खुलीं और गिलगिट की साजिश को समझा। तब हरिसिंह ने हिम्मत व सख्ती से काम लेते हुए अपनी सेना गिलगिट भेजकर अंग्रेजी सेना को गिलगिट छोड़ने को विवष कर दिया और यूनियन जैक उतारकर कश्मीरी झंडा किले पर फहरा दिया। यह अप्रत्याशित घटनाक्रम अंग्रेजों को एक शूल की तरह चुभता रहा। 1930 में जब स्वतंत्रता आंदोलन एक प्रखर राष्ट्रवाद के रूप में देशव्यापी हो गया तो इस राजनीतिक समस्या के हल के बहाने लंदन में गोलमेज सम्मेलन आहूत किया गया। भारतीय राजाओं के अधिकृत प्रतिनिधि के रूप में हरिसिंह ने इसमें हिस्सा लिया। यहां हरिसिंह ने गिलगिट बाल्टिस्तान समेत, संपूर्ण जम्मू-कश्मीर को ‘संघीय राज्य’ बना देने की पुरजोर पैरवी की। किंतु यह मांग अंग्रेजों की मंशा के अनुकूल नहीं थी, इसलिए सिरे से खारिज कर दी। यहां अंग्रेजों ने गिलगिट क्षेत्र से हरिसिंह द्वारा अंग्रेज सेना की बेदखली की गई थी, उसके प्रतिकार स्वरूप साजिश तो रची ही, औपनिवेशिक कूटनीति व भारत को विभाजित करने की मंशा को फलीभूत देखने के नजरिए से शेख अब्दुल्ला को महत्व देकर उसे कश्मीरी शासक के विरुद्ध उकसाना शुरू कर दिया। नतीजतन शेख ने अलगाववादी संगठन ‘मुस्लिम कांफ्रेंस’ की नींव डाल दी। इसी दौरान शेख की मुलाकात नेहरू से हुई, जो मित्रता में बदल गई। 1932 से ही शेख ने कश्मीर पर नाजायज कब्जे के लिए जंग छेड़ दी।
    1946 में शेख ने हरिसिंह के विरुद्ध ‘महाराजा कश्मीर छोड़ों आंदोलन‘ छेड़ दिया। 20 मई 1946 को शेख ने श्रीनगर की मस्जिदों का दुरुपयोग करते हुए सांप्रदायिक उन्माद फैलाने के ऐलान कराए। नतीजतन शेख की गिरफ्तारी हुई और उन्हें तीन साल की सजा सुनाई गई। इस गिरफ्तारी के बाद कश्मीर की स्थिति पूरी तरह नियंत्रण में थी। किंतु यह गिरफ्तारी नेहरू हो रास नहीं आई। नेहरू ने शेख की गिरफ्तारी को गलत ठहराते हुए दिल्ली के राजनीतिक हलकों में हरिसिंह को दोषी ठहराना शुरू कर दिया। नेहरू शेख को छुड़ाने के लिए इतने उतावले हो गए कि जब देश स्वतंत्रता संग्राम की निर्णायक लड़ाई लड़ रहा था, तब 19 जून 1946 को नेशनल ऐयरवेज के हवाई जहाज से लाहौर होकर रावलपिंडी पहुंचे और फिर रावलपिंडी से कार द्वारा श्रीनगर पहुंच गए। यहां के कश्मीरी पंडितों ने नेहरू को समझाइश दी कि आपको गुमराह किया जा रहा है, महाराजा अपनी जगह सही हैं। किंतु नेहरू को ये शब्द कानों में पिघले शीषे की तरह लगे। हरिसिंह ने नेहरू का कहना नहीं माना तो ‘सत्याग्रह’ की घोषणा कर दी। मित्रता के भुलावे में नेहरू द्वारा की गई यह भूल और शेख को छुड़ाने की जिद्द व जुनून कालांतर में ऐतिहासिक भूल साबित हुए। हरिसिंह ने कठोरता बरतते हुए नेहरू के हठ को सर्वथा नकार दिया और उन्हें हिरासत में लेकर कष्मीर की सीमा से बाहर का रास्ता दिखाकर रिहा कर दिया।

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